चुनावी दौर में सोशल मीडिया पर झूठी खबरें और कानून के छोटे पड़ते हाथ

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सचिन श्रीवास्तव
नेशनल एडिटर

सोशल मीडिया के मौजूदा हालात का पूरा विश्लेषण

देश में इस वक्त चुनाव का माहौल है और यकायक सोशल मीडिया पर झूठी खबरों की बाढ़ आ गई है। जाहिर है इन दोनों के बीच के सह संबंध को समझना कोई बहुत मुश्किल बात नहीं है, लेकिन दिक्कत यह है कि देश की एक बड़ी आबादी के हाथ में हाल ही में स्मार्ट फोन आया है और उसके पास न तो खबरों को जांचने की कोई योजना है न ही प्रक्रिया। यह भी एक बड़ा और परेशान करने वाला सच है कि ज्यादातर स्मार्टफोन यूजर्स के पास इंटरनेट सिक्योरिटी की कोई मामूली समझ भी नहीं है। ऐसे में चुनाव और फिर चुनाव के बाद इन नए इंटरनेट यूजर्स को भड़काने, भावनाओं से खेलने और लोकतंत्र में उनकी राय को इस्तेमाल करने के खतरे भरपूर मौजूद हैं। दिक्कत यह है भी है कि सोशल मीडिया पर झूठी खबरों के जरिये अव्यवस्था फैलाने और जनमत को मोड़ने की इस प्रक्रिया को रोकने में कानून के लंबे हाथ भी छोटे पड़ रहे हैं।

एक उदाहरण से इस बात को समझते हैं। अभी हाल ही में एक लाइव वीडियो के दौरान एक व्यक्ति ने एक ऑडियो क्लिप चलाया। इस क्लिप में जो आवाजें हैं उन्हें गृहमंत्री राजनाथ सिंह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और एक महिला दावा है कि वह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की आवाज है। यह तीनों बड़े नेता पुलवामा हमले पर चर्चा कर रहे हैं। एक आवाज है, “चुनाव के लिए हमें युद्ध की जरूरत है।”

आम चुनाव के कुछ समय पहले आया यह आडियो क्लिप लोगों का ध्यान खींचने में कामयाब रहा और 24 घंटे के भीतर इसके वीडियो को 25 लाख बार देखा गया और डेढ़ लाख लोगों ने इसे शेयर भी किया। जबकि हकीकत यह है कि कई ऑडियो फाइल मिला कर, आवाजों को इधर उधर से जोड़ तोड़ कर यह फर्जी ऑडियो क्लिप तैयार किया गया।

इस चुनावी दौर में सोशल मीडिया पर तेजी से फैल रही झूठी और किसी एक समुदाय को फायदा पहुंचाने वाली इन खबरों का यह एक छोटा उदाहरण है। असल में दिक्कत यह भी है कि फैक्ट चेकिंग वेबसाइट जब तक ऐसे झूठ का पर्दाफाश करती हैं, तब तक यह खबरें अपना काम कर चुकी होती हैं और काउंटर करने वाले तथ्य उस तेजी से प्रसारित नहीं हो पाते हैं। जाहिर है सोशल मीडिया के इस दुर्गुण का लाभ कई लोग समाज को बांटने और अपने एजेंडे को परोसने में लगा रहे हैं। सोशल मीडिया प्लेटफार्म भी जिस तेजी से फेक न्यूज को पकड़ रहे हैं, उससे कई गुना ज्यादा तेज गति से फेक न्यूज संचालित करने वाले लोग इंटरनेट में नई सामग्री परोस रहे हैं। लोकसभा चुनावों पर के खत्म होने तक तो इन पर रोक के आसार भी नहीं लगते।

56 करोड़ वोटों पर है नजर सोशल मीडिया के जरिये
2019 के लोकसभा चुनाव देश के लिए खास हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि तमाम पार्टियां वोटर को अपने पक्ष में करने के लिए सही—गलत, नियम, कानून जैसे सवालों में नहीं उलझ रही हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य 90 करोड़ मतदाताओं में से ज्यादा से ज्यादा को अपने पक्ष में करने का है। ध्यान ​दीजिए 90 करोड़। यह दुनिया के आज तक के किसी भी लोकतांत्रिक चुनाव की सबसे बड़ी मतदाता संख्या है। जाहिर है इन तक पहुंचने के लिए पार्टियां कुछ भी करने को तैयार हैं। ऐसे में जो 56 करोड़ लोगों भारत में इंटरनेट की जद में हैं, उन तक आसानी से पहुंच बनाई जा सकती है और इसी क्रम में सोशल मीडिया का झूठ प्रसारित कर लोगों के मत को बदलने, भुनाने की मुहिम जारी है। इसमें कानून का उल्लंघन करने से भी लोग परहेज नहीं कर रहे हैं यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि बीते लोकसभा चुनाव में महज 25 करोड़ लोग ही ऑनलाइन दुनिया में थे। यानी अब दोगुने से ज्यादा वोटर इंटरनेट के जरिये प्रभावित किए जा सकते हैं। अगर सोशल मीडिया ​के जरिये इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले 15 से 20 प्रतिशत लोग भी प्रभावित किए जा सके तो यह संख्या सरकार बनाने गिराने में अहम भूमिका निभा सकती है। क्योंकि हमारे देश में महज 5 प्रतिशत से भी चुनाव में हार जीत तय होती है। दिक्कत यह है कि देश की सभी बड़ी पार्टियों के पास अपनी सोशल मीडिया और आईटी टीम है जो अपने लिए मुफीद खबरों को तोड़मरोड़कर प्रसारित करने में कोई रियायत नहीं बरतती हैं।

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सस्ता डाटा पहुंचा गांवों तक
अब ज​बकि पांच साल में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले मतदाता 25 करोड़ से 56 करोड़ हुए हैं, तो उसी अनुपात में फोन भी सस्ते हुए हैं। साथ ही मोबाइल का डाटा भी इतना कम दाम में उपलब्ध है कि यह पूरी दुनिया के लिए हैरानी का कारण बना हुआ है। गांवों तक इंटरनेट तो पहुंच चुका है, लेकिन वहां तक इंटरनेट से जुड़े खतरों से आगाह करने की कोई प्राविधि विकसित नहीं की गई है। यह एक तरह से ऐसा ही है कि एक बड़े से गड्डे में लोगों को धकेल तो दिया गया है, लेकिन उससे बाहर आने की प्रक्रिया उन्हें नहीं समझाई गई है, न ही यह सिखाया गया है कि उन्हें वहां करना क्या है। तुर्रा यह कि लोग तो खुद ब खुद सीख लेंगे। यहां से खतरे की शुरुआत होती है।

सोशल मीडिया से जुड़े कुछ दिलचस्प आंकड़े

30 करोड़ लोग फेसबुक पर रजिस्टर्ड हैं भारत में
20 करोड़ भारतीय कर रहे हैं व्हाट्सएप का इस्तेमाल
90 प्रतिशत भारतीय स्मार्टफोन में व्हाट्सएप इंस्टॉल है
2 से 3 लाख व्हाट्सएप ग्रुप हैं भाजपा के पास
1 लाख से ज्यादा ग्रुप हैं कांग्रेस के व्हाट्सएप पर

अनजाने में कर रहे लोग गलत खबरों को प्रसारित
व्हाट्सएप पर आए किसी मैसेज को आगे फारवर्ड या प्रसारित करने से पहले भारत में लोग सामान्य रूप से सोचते नहीं हैं। किसी चुटकुले, खबर, हास्य युक्त फोटो और वीडियो को लोग धड़ल्ले से बिना सोचे समझे प्रसारित कर रहे हैं और यह लगभग बीमारी की श्रेणी में आती जा रही लत है। कई बार ऐसी सूचनाएं या मैसेज गलत होते हैं। 2018 में ऐसे गलत मैसेज ने देश के अलग अलग हिस्सों में 30 से ज्यादा लोगों की जान ले ली। व्हाट्सएप पर मैसेज और वीडियो चले कि बच्चों का अपहरण करने वाला गिरोह शहर में घुस आया है और भीड़ कुछ लोगों पर शक की बिनाह पर टूट पड़ी और कुछ निर्दोषों को पीट पीट कर मार डाला। ऐसे कई किस्से हैं, जिनमें झूठी खबरों ने अराजक हालात बनाए।

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सुरक्षा बनी मुसीबत
व्हाट्सएप ने अपने सुरक्षा फीचर में एंड-टू-एंड इनक्रिप्शन का इस्तेमाल किया है। इसका अर्थ है कि मेसेज भेजने और रिसीव करने वाले के अलावा उसे कोई नहीं देख सकता। खुद व्हाट्सऐप भी नहीं। यह फीचर व्हाट्सएप की सुरक्षा को बेहद मजबूत बनाता है और डाटा यहां सुरक्षित होता है, लेकिन अब यही व्हाट्सएप के लिए जी का जंजाल बन चुका है। इस फीचर की वजह से कंपनी खुद यह नहीं देख सकती कि किस ग्रुप में किस तरह के मैसेज प्रसारित किए जा रहे हैं।

सोशल साइट कर रही है कोशिश
झूठी खबरों को रोकने के लिए सोशल मीडिया कंपनियां खुद जागरूकता फैला रही हैं, लेकिन फिलहाल यह नाकाफी दिखाई देता है। व्हाट्सएप ने टीवी, रेडियो और अखबारों के माध्यम से कई विज्ञापन दिए हैं, तो मैसेज फॉरवर्ड करने की सीमा को भी पांच पर नियमित कर दिया गया है। यही नहीं जीबी व्हाट्सएप और व्हाट्सएप प्लस जैसे फोरम को भी मजबूर किया है कि वे पांच से अधिक मैसेज एक साथ भेजने वालों को रोकें। इसी तरह बूम भारत में फेसबुक की साझेदार वेबसाइट है और चुनावों के दौरान फेक न्यूज को फैलने से रोकने की कोशिश में लगी है। फेसबुक ने कई फेक आईडी और पेजों को बंद भी किया है। फेसबुक आदि कंपनियां स्थानीय पत्रकारों के साथ फेक न्यूज की पहचान के लिए कई वर्कशॉप कर रही हैं।

भारत ही नहीं पूरी दुनिया है परेशान
भारत के अलावा दुनिया के अन्य देश भी सोशल मीडिया के चुनावी इस्तेमाल और झूठी खबरों से परेशान हो चुके हैं।
अमरीका: 2016 के चुनावों में सोशल मीडिया के जरिये बाहरी हस्तक्षेप की बात सामने आई। कैम्ब्रिज एनेलिटिका के खुलासे के बाद दुनिया भर में फेसबुक की छवि खराब हुई। फेसबुक ने खुद माना कि लोगों तक ऐसे पोस्ट गए जिनसे चुनाव प्रभावित हुआ और उम्मीदवारों के पक्ष या विपक्ष में माहौल बना।
ब्राजील: 2018 के ब्राजील के चुनावो में सोशल मीडिया के जरिये बेतहाशा फेक न्यूज प्रसारित की गईं। भारत की तरह ब्राजील भी व्हाट्सएप का बेहद अहम बाजार है। व्हाट्सएप ने ब्राजील में कई अकाउंट आपत्तिजनक सूचना फैलाने की वजह से बंद किए।
मलेशिया: 2018 के ही मलेशिया के आम चुनाव में सोशल मीडिया के कारण वोटों को प्रभावित करने का काम किया गया और इसमें गलत तरीकों का धड़ल्ले से इस्तेमाल हुआ।
इंडोनेशिया: इंडोनेशिया में जल्द ही चुनाव होने हैं और यहां सोशल मीडिया की हालात देखते हुए चिंता गहरी है।
यूरोपीय संघ: यूरोपीय संघ के आगामी चुनाव बेहद अहम हैं और इसमें सोशल मीडिया के गलत इस्तेमाल पर अभी से बैठकों का दौर शुरू हो गया है।

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